Tuesday 10 July 2018

ख्याल और ज़िंदगी...

यूं राह तकती रह जाती है ज़िंदगी अक्सर नम आँखों से,
कि लौटता नहीं है वक़्त कभी बेबस अधूरे ख्यालों से,
चालें भी क्या कमाल चली ज़िंदगी ने मुश्किल सफर में,
कि बाज़ी के इंतज़ार में ही हार गया मैं उन सवालों से,
झूंठे दिलासे देती थी ज़िंदगी मुस्कुराहट के हर किस्से में,
कि जुनून सा उमड़ता था जूझने का बेसिर-पैर के बवालों से,
तकल्लुफ़-ए-ज़िंदगी भी मशगूल हो जाती है इस गहरी सोंच में,
कि दिल आख़िर क्यूं नहीं संभलता रोज़-रोज़ के इन हवालों से...
बड़ा चिढ़ चुका है 'प्रशांत' अब तसल्ली भरी इन बातों से,
कि बदलता नहीं है वक़्त ख्वाहिशों के इन मायाजालों से...

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