Tuesday 10 July 2018

इक हमसफर...

आजकल बेसुध सा चलता हूं 
इन आड़ी-तिरछी राहों पर,
कि कहीं कोई ऐसा हमसफर तो होगा 
जिसे साथ चलने की इक तलब सी होगी,
समझ भी होगी जिसमें फिक्र भी होगी 
और कम से कम इनायत तो होगी उसमें,
कैसा होगा वो जहां ज़रा अंदाज़ा तो लगाना,
ज़िंदगी की ज़रूरत पे वक़्त का तकाज़ा तो लगाना,
रूठूंगा नहीं ज़िंदगी से कभी 
भले तन्हाई अकेला सहारा क्यूं ना हो,
मोहब्बत भी लाज़मी है नाचीज़ दिल की,
फक़त हमसफर की इजाज़त तो लेकर आना,
कहते हैं कि उनकी किस्मत बड़ी बुलंद होती है 
जिनके माथे पर ज़रा भी शिकन ना हो,
मैंने भी कोशिश की शिकन दूर करने की,
पर कम्बख़्त ज़िंदगी है कि वक़्त के कहने पर 
हांथ ही खड़े कर देती है,
तलाश आज भी जारी है ऐसे हमसफर की 
जो मुझे मुझसे ज्यादा अपना समझे,
अरे ज़िंदगी ना सही कम से कम अश्कों का 
बोझ संभालने वाला इक कंधा तो समझे...

- प्रशांत द्विवेदी

ख्याल और ज़िंदगी...

यूं राह तकती रह जाती है ज़िंदगी अक्सर नम आँखों से,
कि लौटता नहीं है वक़्त कभी बेबस अधूरे ख्यालों से,
चालें भी क्या कमाल चली ज़िंदगी ने मुश्किल सफर में,
कि बाज़ी के इंतज़ार में ही हार गया मैं उन सवालों से,
झूंठे दिलासे देती थी ज़िंदगी मुस्कुराहट के हर किस्से में,
कि जुनून सा उमड़ता था जूझने का बेसिर-पैर के बवालों से,
तकल्लुफ़-ए-ज़िंदगी भी मशगूल हो जाती है इस गहरी सोंच में,
कि दिल आख़िर क्यूं नहीं संभलता रोज़-रोज़ के इन हवालों से...
बड़ा चिढ़ चुका है 'प्रशांत' अब तसल्ली भरी इन बातों से,
कि बदलता नहीं है वक़्त ख्वाहिशों के इन मायाजालों से...

जो बोलोगे मान लूंगा...

क्यूं हो ख़फा मुझसे ऐसी क्या थी ख़ता मेरी,
क्यूं हो जुदा मुझसे आख़िर क्या है वजह ऐसी,
तुम दिन को रात बोलोगे तो मै मान लूंगा,
तुम नफ़रत को मोहब्बत के अल्फाज़ बोलोगे,
मै मुस्कुराकर मान लूंगा,
तुम बेरुखी को अपनी बेमतलब बात बोलोगे,
मै बिन कुछ बोले उसे मान लूंगा,
तुम सच्ची चाहत को मेरी इक खेल बोलोगे,
फिक्र मत करो मै वो भी मान लूंगा,
मै मान लूंगा हर वो बात तेरी,
जो झूठा साबित करती हो मेरे सच्चे दिल को,
मै मान लूंगा हर वो बात तेरी,
जो मुझे मेरी नज़रों में ही गिराती हो,
याद रखना इक अदब सी थी मेरी चाहत में तेरी ख़ातिर,
अरे चूज़े जैसा होकर भी आसमां से तारे तोड़ने चला था,
ख़ैर ना चाह कर भी दबा दी मैंने हर वो बात जो ज़ुबां पे थी मेरे,
तुझे हर पल बस मुस्कुराता देखने की हसरत जो थी मेरी,
वो कहते हैं ना समय से पहले और भाग्य से ज़्यादा कुछ नहीं मिलता,
बस इन्हीं शब्दों को मैंने अब दुनिया बना ली है अपनी,
तुम फिक्र मत करो अब ख़ामोश हूं मै हर पल हर वक़्त,
बस इल्तज़ा इतनी सी है कि मेरे अश्कों की सच्ची जगह कहां होगी,
तुम इशारे से मुझे कुछ भी बता देना,
एे ज़िंदगी मै सब सच मान लूंगा...

- प्रशांत द्विवेदी