अपने लोगों को जो हंसना कभी सिखा ना सके,
कुछ कैद परिंदों को जो आसमाँ में कभी उड़ा ना सके,
वो बात करते हैं ज़िंदगी में हर ख़ुशी पाने की,
जो आज तक दिल से किसी को अपना बना ना सके...
अब तक जो समझते थे लोगों को कठपुतली हाँथ की,
आज उन्हें भी ज़रूरत है कुछ अपनों के साथ की,
वो बात करते हैं लोगों से दूरियां मिटाने की,
जो दिल से किसी रिश्ते को कभी निभा ना सके...
किसी की मदद कर देने से कोई छोटा नहीं हो जाता,
हर सिक्का जो चलन में ना हो वो खोटा नहीं हो जाता,
वो बात करते हैं ज़िंदगी से हर ग़म भुलाने की,
जो आईने में अपना झूठा चेहरा ही कभी छुपा ना सके...
कभी तो किसी को सीने से लगाया भी होता,
उनके दर्द को कभी तो अपना दर्द बनाया भी होता,
तब अच्छी लगती धमक पैसों से ज़िंदगी संवारने की,
पर अब क्या जब पैसों से असल ज़िंदगी को ही तुम पा ना सके...
- प्रशांत