Friday 17 August 2018

बीता युग दोहराता हूं...

इक कर्मठ नेता के जीवन की,
ज्ञान-ध्यान और सुध-बुध की,
हर गाथा आज सुनाता हूं,
मै बीता युग दोहराता हूं,

सर्द और ठिठुरन के दिन में,
ग़ुलाम देश की हर मुश्किल में,
इक नाम नया जब जन्मा था,
शुभनाम 'अटल' तब गूंजा था,

जैसे-जैसे हर दिन गुज़रा,
ज्ञान-बुद्धि का अड़ा था पहरा,
थी कलम हांथ में और रूह पर,
छाप मुल्क का पड़ा था गहरा,

फिर खड़े हुए पैरों पर अपने,
सब सुख त्यागे चुने देशभक्ति के सपने,
उन सपनों की हर व्यथा बताता हूं,
मै बीता युग दोहराता हूं,

वो बने देश के सर्वेसर्वा,
पिया घूंट राजनीति का कड़वा,
कलम हाँथ में मुख पर तेज़ अचूक सा,
देश-विदेश में बना इक रिश्ता अटूट सा,

भारत रत्न सपूत का तमगा पाकर,
स्मरण किया भारत माँ को शीश झुकाकर,
किये सफल प्रयास देशहित में जब-जब,
शीश उठा भारत माँ का फख़्र से तब-तब,

जो ठन गयी वो होनी होती है,
हर होनी में कुछ अनहोनी भी होती है,
वो 'अटल' शख्सियत विदा ले गयी सबसे,
नम आँखें हैं यादें उमड़ रही हैं तबसे,

याद रहेगी हर ख्वाहिश जिनके जीवन की,
उन अजर-अमर देश के प्रहरी की,
हर गाथा आज सुनाता हूं,
मै बीता युग दोहराता हूं,

मै बीता युग दोहराता हूं...

- प्रशांत द्विवेदी