(अपनी कलम की स्याही से शब्दों को पिरोता हूं...मैं 'प्रशांत' हूं जनाब कभी सच तो कभी ख्वाब संजो के लिखता हूं...♥☺)
Thursday 16 November 2017
" वो बचपन की बात कुछ और थी "
बचपन की वो छुपन-छुपाई वो शोर-शराबा अब गुज़रा कल हो गया है,
दिल तो वही है बस कद थोड़ा सा और बढ़ गया है,
आज भी ताज़ा हैं जेहन में हर वो ख़्वाहिश जो नटखट हुआ करती थी,
जनाब वो बचपन की बात कुछ और ही हुआ करती थी...
दिल तो बच्चा था और इरादों में सच्चाई थी,
नादानी में किए गए हर इक वादे में सच्चाई थी,
जो जैसा मिलता था उसे अपनाने में हिचक भी हुआ करती थी,
जनाब वो बचपन की बात कुछ और ही हुआ करती थी...
हम रोते थे तो हमें चुप कराने वाला भी कोई था,
हर खुशी में हमारा साथ निभाने वाला कोई था,
माँ-पापा से ही तो हमारी दुनिया हुआ करती थी,
जनाब वो बचपन की बात कुछ और ही हुआ करती थी...
पर अब जाकर एहसास हुआ,
बड़ा फर्क होता है बचपन और जवानी में,
बचपन तो मासूम था,
लेकिन जद्दोजहद करनी पड़ती है अब ज़िंदगी की रवानी में,
आँसुओं के बाद ख़ुशी और झगड़े के बाद प्यार,
यही तो बचपन की सौगात हुआ करती थी,
जनाब वो बचपन की बात कुछ और ही हुआ करती थी...
- प्रशांत द्विवेदी
Monday 6 November 2017
" हैवानियत से लड़ती निर्भया "
आज फिर इक मासूम पर अत्याचार हो रहा था,
आज फिर इक निर्भया का जिस्म तार-तार हो रहा था,
वो चीखती रही चिल्लाती रही,
गला फाड़कर तमाशबीनों से गुहार लगाती रही,
फिर उसकी आवाज़ जैसे कहीं गुम सी गयी,
इंसान की ओछी मानसिकता पर वो दुखी सी हो गयी,
सक्षम होकर भी वो ख़ुद को असहाय समझने लगी, क्यूंकि दरिंदों की पहुंच अब सत्ताधारियों तक होने लगी,
ऐसा ना था कि वहां लोगों को उसकी परवाह ना थी,
उनमे भी दिल था आँसू थे पर पहल की हिम्मत ना थी,
वो मजबूर ना थी उसे हालात ने मजबूर कर दिया, ज़िंदगी जीने के जज़्बे को उसके पल में चकनाचूर कर दिया,
दोस्तों लेकिन वो हारी नहीं सच्चाई से मुंह मोड़कर भागी नहीं,
अन्याय के खिलाफ़ पहल की उसने तमाशबीनों से मदद मांगी नही,
समझ नहीं आया ख़ुद को मर्द कहने वाले कहां थे उस वक़्त,
सच में उनमें जिगरा भी था या पहले से वो थे ही निःशक्त,
जागो यारों इंसान हो अब तो कुछ इंसानियत दिखाओ,
जो आज हुआ कल फिर ना हो उन्हें कुछ तो ऐसा सबक सिखाओ,
वरना तिल-तिल इंसानियत शर्मसार होती जाएगी,
हम डरते रहेंगे और हैवानियत की सारी हदें पार होती जाएंगी...
-प्रशांत द्विवेदी
BgPicCredit - Google
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