आज फिर इक मासूम पर अत्याचार हो रहा था,
आज फिर इक निर्भया का जिस्म तार-तार हो रहा था,
वो चीखती रही चिल्लाती रही,
गला फाड़कर तमाशबीनों से गुहार लगाती रही,
फिर उसकी आवाज़ जैसे कहीं गुम सी गयी,
इंसान की ओछी मानसिकता पर वो दुखी सी हो गयी,
सक्षम होकर भी वो ख़ुद को असहाय समझने लगी, क्यूंकि दरिंदों की पहुंच अब सत्ताधारियों तक होने लगी,
ऐसा ना था कि वहां लोगों को उसकी परवाह ना थी,
उनमे भी दिल था आँसू थे पर पहल की हिम्मत ना थी,
वो मजबूर ना थी उसे हालात ने मजबूर कर दिया, ज़िंदगी जीने के जज़्बे को उसके पल में चकनाचूर कर दिया,
दोस्तों लेकिन वो हारी नहीं सच्चाई से मुंह मोड़कर भागी नहीं,
अन्याय के खिलाफ़ पहल की उसने तमाशबीनों से मदद मांगी नही,
समझ नहीं आया ख़ुद को मर्द कहने वाले कहां थे उस वक़्त,
सच में उनमें जिगरा भी था या पहले से वो थे ही निःशक्त,
जागो यारों इंसान हो अब तो कुछ इंसानियत दिखाओ,
जो आज हुआ कल फिर ना हो उन्हें कुछ तो ऐसा सबक सिखाओ,
वरना तिल-तिल इंसानियत शर्मसार होती जाएगी,
हम डरते रहेंगे और हैवानियत की सारी हदें पार होती जाएंगी...
-प्रशांत द्विवेदी
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